महिलाओं की शिक्षा

उदय दिनमान डेस्कः  व्यक्ति और समाज के विकास में शिक्षा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुआयामी है। शिक्षा केवल ज्ञान अर्जन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह व्यक्तित्व निर्माण, सामाजिक प्रगति, और आर्थिक विकास का आधार भी है।

शिक्षा वर्तमान युग का ऐसा हथियार है जिससे व्यक्ति अपने सामाजिक प्रस्थिति को उर्ध्वगामी कर सकता है अर्थात्  जहाँ परंपरागत समाजों में व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी प्रदत्त प्रस्थिति से होता था जिसको आजीवन वह बदल नहीं सकता था वहीं आज के अर्जित प्रस्थिति पर आधारित समाजों में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण कारक है जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज में अपनी लोकेशन को सकारात्मक तरीके से बदल सकता है।

वंचित वर्ग और हाशिए के समाजों के लिए शिक्षा प्रगति और विकास के असीमित द्वार खोलता है। शिक्षा व्यक्ति को नैतिक, बौद्धिक और भावनात्मक रूप से सशक्त बनाती है। यह आत्मविश्वास, निर्णय लेने की क्षमता और समस्या-समाधान का कौशल विकसित करती है। शिक्षा व्यक्ति को रोजगार के योग्य बनाती है। व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा से व्यक्ति आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है।

शिक्षा ना केवल व्यक्ति को पेशेवर रूप से दक्ष बनाती है वरन यह व्यक्ति को समाज का एक ऐसा सदस्य बनाती है जो समाज के सामाजिक लक्ष्यों और उसे प्राप्त करने वाले मान्यता प्राप्त साधनों के साथ तादात्म्य स्थापित करने में भी सहयोग करती है। इसके साथ ही शिक्षा समाज में समानता स्थापित करने कि कार्य भी करती है। शिक्षा जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के भेदभाव को कम करने में मदद करती है। यह समाज में समान अवसरों को बढ़ावा भी देती है।

वर्तमान समय में देखें तो हम पाते है कि सामान्य वर्ग की महिलाओं की शिक्षा में सकारात्मक प्रगति हुई है, लेकिन वंचित वर्ग की महिलाओं को अभी भी कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारतीय महिलाओं की कुल साक्षरता दर 65.46% थी वहीं 2011 में दलित महिलाओं की साक्षरता दर 56.46% और आदिवासी महिलाओं की 49.35% थी। भारत में मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा की स्थिति एक जटिल और बहुआयामी विषय है।

यह स्थिति सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक कारकों से प्रभावित होती है। हालांकि पिछले कुछ दशकों में सुधार हुआ है, लेकिन चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 51.9% थी, जो अन्य धार्मिक-सांस्कृतिक समुदायों की महिलाओं की तुलना में कम है। इस दर में सुधार हुआ है, लेकिन यह अभी भी राष्ट्रीय औसत से कम है।

मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा का निम्न स्तर भारतीय समाज में एक गंभीर मुद्दा है, जो कई सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक कारणों से प्रभावित होता है। यह समस्या केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है, लेकिन मुस्लिम लड़कियों के संदर्भ में इसके विशेष पहलू हैं। मुस्लिम समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के सामाजिक कारण कई आयामों में देखे जा सकते हैं।

मुस्लिम समाज में शिक्षा को लेकर परंपरागत सोच और रूढ़िगत मान्यताओं ने शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के बजाय पुरुषों को प्राथमिकता दिया है यह मान्यता की रोजगार का क्षेत्र लड़कों के लिए है और लड़कियों के लिए घरेलू जिम्मेदारियां प्राथमिक है, कारण इस समाज में पेशेवर शिक्षा से लड़कियों को महरूम किया जाता रहा है। इसके साथ ही कई परिवार आधुनिक शिक्षा के बजाय धार्मिक शिक्षा (मदरसा शिक्षा) को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि, धार्मिक शिक्षा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह मुख्यधारा की शिक्षा की कमी की भरपाई नहीं कर सकती।

लड़कियों की सुरक्षा का मुद्दा भी उनकी शिक्षा के बाधक कारक के रूप में सामने आता है मुस्लिम समाज के कई हिस्सों में लड़कियों की सुरक्षा को लेकर माता-पिता चिंतित रहते हैं यह अक्सर लड़कियों को स्कूल जाने से रोकने का कारण बनता है। बाल विवाह का प्रचलन भी सामाजिक रूढ़ि के रूप में मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाला तत्व है।

वहीं लैंगिक भूमिकाओं के सूक्ष्म अभिव्यक्ति के रूप में हम देखते है कि लड़कियों को घर के कामों में मदद करने और छोटे बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी दी जाती है, जिससे उनकी पढ़ाई बाधित होती है। आधुनिक शिक्षा के प्रति संदेह की भावना भी इस समुदाय के शिक्षा को प्रभावित करती है कुछ परिवार आधुनिक शिक्षा को “धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों” के लिए खतरा मानते हैं।

मुस्लिम समाज में शिक्षा के निम्न स्तर के सामाजिक कारण परंपरागत सोच, लैंगिक भेदभाव, और सामाजिक असुरक्षा से जुड़े हैं। मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा में बाधक आर्थिक कारक उनके शैक्षणिक विकास में एक महत्वपूर्ण अवरोधक हैं। इन कारकों का संबंध परिवार की आर्थिक स्थिति, शिक्षा पर होने वाले खर्च, और आर्थिक प्राथमिकताओं से है।

मुस्लिम समुदाय के एक बड़े हिस्से की आय कम है, जिससे उनकी प्राथमिकता भोजन, स्वास्थ्य और रहने की व्यवस्था बनाना होती है। इन प्राथमिकताओं को पूरा करने के पश्चात भी यदि ये परिवार शिक्षा पर खर्च करते है तो उनका बड़ा हिस्सा परिवार के लड़कों पर जाता है। लड़कों की शिक्षा को निवेश के रूप में देखा जाता है, जबकि लड़कियों की शिक्षा को “अर्थ ही न खर्च” माना जाता है।

मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अच्छी गुणवत्ता वाले स्कूलों और कॉलेजों की कमी। कई बार गरीब परिवारों को सस्ते और नजदीकी स्कूल नहीं मिलते, जिससे उनकी लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं। मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा में सांस्कृतिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह समस्या परंपरागत सोच, सामुदायिक दबाव, और सांस्कृतिक प्रथाओं से जुड़ी हुई है। इन कारकों का प्रभाव शिक्षा की गुणवत्ता, पहुंच, और निरंतरता पर पड़ता है।

मुस्लिम समाज के कई हिस्सों में यह धारणा है कि लड़कियों को अधिक शिक्षा की जरूरत नहीं है, क्योंकि उन्हें शादी के बाद घरेलू जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। सह-शिक्षा (Co-education) को कई परिवारों द्वारा “अनुचित” माना जाता है, जिससे लड़कियों को स्कूल भेजने में हिचकिचाहट होती है। कुछ परिवार आधुनिक शिक्षा को “धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों” के लिए खतरा मानते हैं।

कई मुस्लिम लड़कियों को मुख्यधारा की शिक्षा के बजाय केवल धार्मिक शिक्षा तक सीमित रखा जाता है। भाषाई विभाजन कई मामलों में मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा को सीमित कर देता है। मुस्लिम समुदाय के कुछ हिस्से उर्दू माध्यम को प्राथमिकता देते हैं, जबकि सरकारी स्कूल हिंदी या अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्रदान करते हैं।

जब हम मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा की दशा और दिशा पर विमर्श करते है तो अक्सर यह संदर्भ उठता है कि एक धार्मिक समुदाय के रूप में इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों और इसके पवित्र पुस्तकों में लड़कियों की शिक्षा को लेकर क्या विचार है तो हम पाते है कि इस्लाम में महिलाओं की शिक्षा को अनिवार्य और महत्वपूर्ण माना गया है। इस्लाम महिलाओं की शिक्षा को न केवल प्रोत्साहित करता है, बल्कि इसे अनिवार्य भी मानता है।

कुरआन और हदीस में स्पष्ट रूप से शिक्षा के महत्व और ज्ञान प्राप्त करने के लिए पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं। इस संबंध में हदीस में वर्णन है कि पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम) ने कहा है कि “ज्ञान प्राप्त करना हर मुस्लिम पुरुष और महिला पर फर्ज़ (अनिवार्य) है।

कुरआन में शिक्षा का महत्व को दर्शाने के लिए यह पर्याप्त है कि कुरआन का पहला शब्द है “इक़रा” (पढ़ो), जो ज्ञान प्राप्त करने के महत्व को दर्शाता है। कुरआन में ज्ञान और समझ को अल्लाह की महान कृपा माना गया है “क्या वे लोग जो जानते हैं और जो नहीं जानते, बराबर हो सकते हैं?”(सूरह अजज़ुमर, 39:9)। पैगंबर मोहम्मद ने महिलाओं को ज्ञान और धर्म के शिक्षण के लिए प्रोत्साहित किया।

पैगंबर की पत्नी आयशा (रज़ी अल्लाहुअन्हा) खुद एक विद्वान थीं और उन्होंने हजारों हदीसों का संग्रह किया। इस्लाम की वैचारिकी यह मानती है कि शिक्षा के माध्यम से महिलाएं धार्मिक ज्ञान अर्जित करती हैं, जो उन्हें इबादत के सही तरीकों और जीवन के इस्लामी आदर्शों को समझने में मदद करता है।

मजहबी शिक्षा के साथ ही इस्लाम में आधुनिक शिक्षा और सामाजिक एवं नैतिक शिक्षा को भी प्रोत्साहित किया जाता है। इसके अलावा, इस्लाम के शुरुआती वर्षों के दौरान, मुस्लिम महिलाएं पुरुषों के साथ-साथ स्कूलों और विश्वविद्यालयों में जाती थीं।

बगदाद और काहिरा जैसे शहरों में, महिलाओं ने चिकित्सा, गणित और साहित्य जैसे क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। शिक्षा को न केवल व्यक्तिगत लाभ के रूप में देखा जाता है, बल्कि सामाजिक कर्तव्य के रूप में भी देखा जाता है। इस्लाम में, महिलाओं को शिक्षित करना परिवार और समाज को बेहतर बनाने का एक साधन माना जाता है।

ग़ौरतलब है कि सैद्धांतिक रूप से स्त्री-पुरुष की समान शिक्षा पर बल देने वाले मुस्लिम समाज में व्यावहारिक यथार्थ बिल्कुल अलहदा है। मुस्लिम लड़कियाँ धार्मिक सिद्धांतों से परिचालित होने के बजाय सामाजिक–सांस्कृतिक भ्रांतियों और रूढ़िगत मान्यताओं का शिकार होकर शिक्षा के मौलिक और मानवीय अधिकारों से वंचित रही है।

भारत में मुस्लिम लड़कियों के सामने आने वाली शैक्षिक असमानताओं को दूर करने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। सरकार और गैर सरकारी संगठनों को स्कूलों तक पहुँच को बेहतर बनाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहाँ शिक्षा के बुनियादी ढाँचे की कमी है। इसमें लड़कियों के लिए स्कूल स्थापित करना, छात्रवृत्ति प्रदान करना और मुफ़्त शैक्षिक सामग्री प्रदान करना शामिल हो सकता है।

लड़कियों की शिक्षा के महत्व के बारे में मुस्लिम समुदायों को शिक्षित करने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान की आवश्यकता है। इन अभियानों का नेतृत्व स्थानीय धार्मिक नेताओं, शिक्षकों और समुदाय के प्रभावशाली लोगों द्वारा किया जा सकता है जो गलत धारणाओं का मुकाबला कर सकते हैं और लड़कियों को शिक्षित करने के लाभों को उजागर कर सकते हैं।

समुदाय के नेताओं और धार्मिक विद्वानों को लड़कियों की शिक्षा की वकालत करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। वे इस्लामी शिक्षाओं का उपयोग उन हानिकारक सांस्कृतिक मानदंडों को चुनौती देने के लिए कर सकते हैं जो लड़कियों को स्कूल जाने से रोकते हैं और परिवारों को अपनी बेटियों की शिक्षा का समर्थन करने के लिए सशक्त बनाते हैं।

सरकार बाल विवाह के खिलाफ़ सख्त कानून लागू कर सकती है और लड़कियों को स्कूल में रखने के लिए परिवारों को प्रोत्साहित कर सकती है। छात्रवृत्ति और मुफ़्त शिक्षा जैसी गरीब परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाली नीतियाँ मुस्लिम लड़कियों के बीच स्कूल छोड़ने की दर को कम करने में काफ़ी मददगार साबित हो सकती हैं।

जबकि भारत में मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, ये बाधाएँ दुर्गम नहीं हैं। इस्लाम, अपनी मूलशिक्षाओं में, महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा की वकालत करता है, और मुस्लिम समुदाय के भीतर शिक्षा के माध्यम से लड़कियों को सशक्त बनाने की आवश्यकता के बारे में बढ़ती मान्यता है।

मदरसों और स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मुख्यधारा की शिक्षा को शामिल करना चाहिए। सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बाधाओं को दूर करके, हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि मुस्लिम लड़कियाँ पीछे न रहें और वे अपने परिवार, समुदाय और बड़े पैमाने पर समाज के विकास में योगदान दे सकें।

सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाओं के बावजूद, मुस्लिम समुदायों को इस्लाम के सिद्धांतों का पालन करते हुए लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए। शिक्षा एक सशक्त माध्यम है, जो महिलाओं को व्यक्तिगत, पारिवारिक, और सामुदायिक विकास में योगदान देने में सक्षम बनाती है। जब मुस्लिम लड़कियां शिक्षित होंगी, तो यह इस्लामी समाज को अधिक सशक्त और प्रगतिशील बनाएगा।

-प्रो बंदिनी कुमारी,लेखिका समाज शास्त्र की प्रोफेसर हैं और उत्तरप्रदेश के डिग्री कॉलेज में कार्यकर्ता हैंI

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