जे0पी0 मैठाणी
देहरादून।गोपेश्वर से पोखरी रोड पर या यूं कहें गोपेश्वर बैण्ड से लगभग 9-10 किमी0 पर सड़क के बांयी ओर तीव्र ढाल के बाद पांच पुराने मकानों वाला एक छोटा सा गाँव है जुमला। ये हमारा पुश्तैनी गाँव हैं. इस गाँव से मेरा परिचय शायद पहली बार 1984 या 1985 में हुआ।( मेरा जन्म पीपलकोटी में हुआ ) . मुझे गाँव जाने का जो प्रसंग सबसे अधिक याद है वो ये है कि मैं पीपलकोटी से अपने ताउ जी के साथ चमोली बाजार, लाल सांगा (1971 की बाढ़ से पहले अलकनन्दा नदी पर लाल लोहे के गार्डरों का पुल रहा होगा) पार होते हुए अलकापुरी पहुंचा. फिर अलकापुरी का रेतीला भाग पार करते हुए बालखिला और बालखिला नदी में लकड़ी के गोल बांसे से बना दोनों तरफ नदी के गोल-गोल बड़े-बड़े गंगलोड़ों (नदी में बहकर आये गोल पत्थर) पर बनाये गये पुल से पार होकर एक छोटी सी धार में बैठ जाता हूँ। यहाँ से अलकनन्दा और बालखिला के संगम पार ऋषिकेश वाली रोड दिखती है।
ऊपर पठियालधार और गोपेश्वर का कुछ एरिया। उस वक्त गोपेश्वर तक सड़क तो जाती थी लेकिन जुमला को सड़क अभी नहीं जोड़ पायी थी। बालखिला की ऊपर धार से नीचे अर्द्धचंद्राकार फैला हुआ भोटिया गाँव फैला हुआ दिखाई देता है। और यहीं से असली चढ़ाई शुरू होती है पिलंग गाँव होते हुए रड़घुस्सी चरान से चीड़ जंगलों में फिसलते पिरूल और छैंते (चीड़ के फल) के बीच से रूखी-सूखी खतरनाक चढ़ाई। यहाँ चढ़ते हुए उस दौर में सांस फूल गयी थी। मैं बार-बार पीछे छूट जाता, तो ताऊजी कहते बस थोड़ी दूर और दो फलांग, उस धार के पीछे। और धार खत्म ही नहीं होती।
मेरे मनोबल को बनाये रखने के लिए उन्होंने एक नई कहानी सुना दी कि ऊपर चीड़ के घने जंगलों के बीच शानदार तीन लाख का बंगला है और वहाँ बहुत सारी मुर्गियां भी हैं। मुझे बचपन से ही मुर्गियां, कुत्ते, बिल्ली पालने का बहुत शौक था। और इसी उत्साह में मैं थोड़ी दूरी तक तेज चल देता। मुझसे सौ दो सौ मीटर आगे पहुंच चुके ताऊ जी पत्थर पर बैठकर बीड़ी फूंक रहे होते। मेरे पास पहुँचते ही वो सावधानी से जली बीड़ी रास्ते की मिट्टी मे फेंकते और जूते से तब तक रगड़ते जब तक वो पूरी तरह बुझ ना जाए। उन्होंने ही बताया कि चीड़ का पिरूल यानि चीड़ की पत्तियां बहुत जल्दी आग पकड़ लेती हैं। और इससे जंगलों को भारी नुकसान हो जाता है।
आखिर रात के हल्के धुंधलके पहले हम एक बड़े से काले पीले कनस्तरों से चारो तरफ से घिरे घर पर पहुँचते हैं। बाद में पता चला ये लीसा डिपो है ओर जो कनस्तर हैं वो इन चीड़ के पेड़ों से निकाले गये लीसे से भरे हैं। ठीक बगल में एक बड़ा सा पुराने कनस्तरों, कोलतार के ड्रमों और टीन की पुरानी नालीदार चद्दरों से बना एक घर है। इन घरों में जंगलों से लीसा निकालने वाले नेपाली मूल के कुछ परिवार और कुछ हमारे क्षेत्र के लोग रह रहे थे.
ताऊ जी को मिलते ही उन्होंने प्रणाम किया और मेरे ताऊ जी ने मुझे बताया कि भई, ये है तीन लाख का बंगला। गुस्सा तो मुझे बहुत आया पर जैसे ही मेरे ताऊ जी ने कहा इसको पीपलकोटी जाने से पहले दो मुर्गी दे देना और उन सज्जन ( शायद उनका नाम कलि बहादुर था ) ने सहजता से सहमति दी तो बालखिला से जुमला पहुँचने तक की थकान काफूर हो गयी। एक धार पार करते ही गाय-बैल के गले में बांधी गयी घंटी की आवाज सुनाई देने लगी। गाय के झुण्ड के पीछे कण्डी में कुछ लकड़ियां और चीड़ के छैंते भरी कण्डी लेकर आगे आगे चल रही महिला को ताऊ जी ने काकी प्रणाम कर सम्बोधित किया और मुझे आगे करते हुए बोले ये जगत है, दया का बेटा। यानि वो मेरी गाँव की दादी (बिशेश्वरी देवी) थी।
ये सुनते ही जब तक मैं उनके पांव छूता उन्होंने रस्ते में ही कण्डी फेंक दी और मुझे कस कर गले लगा दिया। मैं हक्का-बक्का, थोड़ी देर तक तो समझ में ही नहीं आया। इतने देर में उनकी खुरदुरी हथेली मेरे गाल सहलाते हुए बालों की स्यूंन (बालों की मांग) खराब करते हुए फिर से मुझे झप्पी बांधने लगी। ये पहली मुलाकात थी जुमला की किसी भी दादी के साथ यानि विजय चाचा जी की माँ के साथ। फिर वर्ष बीतते गये, पोखरी बैण्ड से जुमला तक और आगे पोखरी तक सड़क बन गयी पुराने गाँव आना-जाना जारी है।
पर कभी जुमला गए हों और इन दादी से ना मिले हों ऐसा तो होता ही नहीं था। क्योंकि वो दादी ऐसा होने और करने की समस्त संभावनाओं को सहजता से ख़त्म कर देती थी। दादी के घर के संतरे, नींबू, नारंगी, चूड़ा, कुछ दालें कभी-कभी भीमल के रेशे के बण्डल, कभी कद्दू तोरी के बीज और भंगजीरा मिले चूड़े हमारे बैग, पैण्ट की जेबों की शोभा बढ़ा रहे होते और हम गुड़ की चाय पीकर दादी को मिले बिना कभी भी जुमला से वापस नहीं आते।
दादी से पिछली और आखिरी मुलाकात 12 जनवरी 2015 में पूजा के दौरान हुई थी। अपने गाँव के घर के चौक के किनारे उगे फरसें के पेड़ के पीछे से उस दिन आंगन में पहुँचते ही सामने गौशाला जाती दादी दिखी, पीछे-पीछे दादा जी (स्व0 श्री मार्कण्डेय प्रसाद मैठाणी) एक बछिया को हांकते हुए आ रहे थे। सामने से दादी का हुक्म धौ लगाते हुए – “च्याय प्यौंण ए जाया रे।” (चाय पीने आ जाना रे।) अगले दिन सुबह पीपलकोटी लौटने से पहले माँ के साथ दादी (श्रीमती बिशेश्वरी देवी मेरी माँ का नाम भी यही है ) के घर गया।
मेरी मां दादी को जी ( सास) बोलती है , दादा जी बीमारी की हालत में थे। शायद मुझे लगता है पारकिन्सन की वजह से बार-बार भूल जा रहे थे। बूढ़ी धुंधलाती आँखों में पुरानी स्मृतियों के चित्र दौड़ाते दादा जी तिबारी के नीचे और किचन के सामने चिनी गयी चौड़े पत्थर की दीवार और उस पर बिछा भोटिया कालीन पर हाथ खींच कर हमें बैठा लेते। जैसे ही माँ और मैं अपने पिताजी का हवाला देते उनकी आँखों की पोर से आंसू गालों पर लुढ़क आते ( मेरे पिताजी का पूर्व में फ़रवरी 2006में निधन हो गया था ) ।
अंदर दादी का चूल्हा गरम और तिबारी के कोनों से खदबदाते पानी के साथ यादों और स्मृतियों का धुंआ आसमान की ओर बढ़ता जा रहा था। पूस का महीना तेज धूप आंगन में पसर रही थी, सामने नीचे सैकोट और मैठाणा के बीच से सर्पीली अलकनन्दा हलके गदराये बादलों की ओट के साथ मानों भावों को समेटे बह रही हो।
यहाँ चौक में दादा-दादी और मेरी माँ अपने भावों की नदी के साथ उतार-चढ़ाव और घुमावदार स्मृतियों के झुरमुट में चाय की चुस्कियां लेते। मैं, मिन्टू और अशोक का बेटा कैमरे में पुराने घरों और दादा-दादी की तस्वीर कैद करते। सामने नारंगी के पेड़ पर कुछ बची हुई नारंगियां हल्की सिकुड़ चुकी हैं। पत्तियां गिरने लगी हैं। सुरेन्द्र भाई साहब के घर की ओर गदेरे में उगे तुन और रीठे के पेड़ की पत्तियां उड़कर आंगन में आ रही हैं।
चीड़ की लकड़ी से बना नीले रंग में पुता दादी के सुंदर पठाल, सुंदर खोलि वाले घर का जंगला मधुमक्खी की पेटी के साथ पुरानी बाल्टी में उगी तुलसी सहित माहौल को कौतूहल से भर रहे हैं। रोज की तरह दादी के किस्से, नरसिंह के थान और पूजाघर में सिर झुकाना, सुन्दर तरीके से लिपा पुता बौण्ड में बना मंदिर दादा-दादी की आस्था का प्रतीक तेल के दीये के साथ दमक रहा था, और अपनी आभा बिखेर रहा था।
अपने नित्यकर्म पूजा पाठ के लिए दादा जी सेवानिवृत्ति के बाद पूर्ण समर्पित – गाँव में दोनों अकेले रहते इन दिनों .उस दिन लौटते हुए मैंने कभी नहीं सोचा कि ये दादा-दादी के साथ आखिरी मुलाकात होगी। उसके कुछ माह बाद अचानक खबर मिलती है कि दादा जी का निधन हो गया, ये संभवतः मार्च का महीना था। तमाम कोशिशों के बावजूद, जीवन के आपा-धापी के बीच जुमला नहीं जा सका। गाँव से निकलते हुए दादी के सख़्त-खुरदरे हो चुके हाथों का नर्म स्पर्श आज भी महसूस हो रहा है।
अभी दीपावली से तीन दिन पहले खबर मिली कि जुमला की दादी को लेकर प्रकाश चाचा जी गौचर से जुमला वापस आ रहे थे, तो जुमला गाँव के नजदीक जैसे ही दादी को सड़क पर उतारा सुना कि- जैसे ही दादी को पता चला कि जुमला पहुँच गए उनके प्राण पखेरू अपने गाँव जहाँ कभी नौटी गाँव से उनकी डोली आयी होगी- विदा हो गए (दादा जी मृत्यु के बाद से वो लम्बे समय से बीमार थीं शायद ।). बादमें सुबोध काका ने बताया कि दादी – दादा जी के निधन के बाद काफी बीमार रहने लगी थी .
अब जुमला गाँव से सबको आवाज लगा लगा कर चाय पिलाने, भात खिलाने, भंगजीरा मिला चूड़ा, संतरा, नारंगी और भीमल रेशा बांटने वाली दादी के साथ एक पीढ़ी का अवसान हो गया। वो हमारे गाँव की ही नहीं आस-पास के कई गाँवों की दादी थी। कल उनकी तेरहवीं में शामिल न होने का मलाल सालता रहेगा। पर हमारी अपनी दादी से हमें वो दादी ज्यादा याद रहीं। स्मृतियों के अंबार और अभी बाकी हैं। शीत ऋतु के आगमन के साथ जुमला से देखने पर सैकोट और मैठाणा के बीच से ऋषिकेश की और जाती हुई सड़क के समानांतर अलकनन्दा नदी शांत उदास बह रही है। पोखरी की दिशा में धूप छिप रही है। जुमला में अब शायद घरों में कमरे ज्यादा हैं, लेकिन लोग कम।