टिहरी गढ़वाल: आज से शारदीय नवरात्रि शुरू हो गई हैं. नवरात्र के पहले दिन सुरकंडा देवी मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी है. ऐसी मान्यता है कि यहां माता के दर्शन करने से हर मनोकामना पूरी होती है. सुरकंडा देवी का मंदिर उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित है. ये मंदिर सिद्धपीठ है.
देवभूमि उत्तराखंड अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं और शक्तियों के कारण हर किसी को आकर्षित करती है. देश-विदेश के लोग यहां आकर सुख और शांति महसूस करते हैं. यहां के मंदिरों की बात ही अलग है. इन्हीं मंदिरों में से एक है टिहरी जिले में स्थापित सिद्धपीठ माता सुरकंडा देवी का मंदिर. ऐसी मान्यता है कि जो भक्त इस मंदिर में सच्चे दिल से प्रार्थना करता है, माता उसकी हर मनोकामना पूरी करती हैं.
उत्तराखंड में चारधाम, पंचबद्री, पंचकेदार, पंचप्रयाग और कई सिद्धपीठ हैं. इन्हीं में से एक है माता सुरकंडा मंदिर. सुरकंडा सिद्धपीठ मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां जो भी भक्त माता के दरवार में आता है वह कभी निराश नहीं लौटता है. भक्त की हर मनोकामना माता पूर्ण करती हैं. स्कन्द पुराण के केदारखंड में भी इस सिद्धपीठ का वर्णन किया गया है. इस सिद्धपीठ के दर्शन करने के लिये बड़ी सख्या में भक्त यहां आते हैं.
पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया. यज्ञ में सबको बुलाया गया. सिर्फ अपनी पुत्री सती के पति शिव को नहीं बुलाया. इसीलिये यज्ञ में अपने पति को न देखकर और पिता दक्ष प्रजापति के द्वारा अपमानित किए जाने पर मां सती ने अपनी ही योग अग्नि द्धारा स्वयं को जला डाला. इससे दक्ष प्रजापति के यज्ञ में उपस्थित शिव गणों ने भारी उत्पात मचाया. गणों से सूचना पाकर भगवान शिव कैलाश पर्वत से यज्ञ स्थल पर पहुंचे तो सती को जली अवस्था में देखकर क्रोधित हो गये.
सुरकंडा में गिरा था माता सती का सिर: सती के अग्नि में जले शरीर को देखकर भगवान शिव सुध बुध खो बैठे. शिव मां सती की देह कंधे में उठा कर हिमालय की ओर चलने लगे. शिव को इस प्रकार देखकर भगवान विष्णु ने विचार किया कि इस प्रकार शिव के सती मां के मोह के कारण सृष्टि का अनिष्ट हो सकता है.
इसलिये भगवान विष्णु ने सृष्टि कल्याण के लिये अपने सुर्द्धशनचक्र से मां सती के अंगों को काट दिया. सुदर्शन चक्र से कटकर जहां मां सती के अंग गिरे, वही स्थान प्रसिद्ध सिद्धपीठ हो गये. टिहरी में जहां माता सती का अंग गिरा वहां सुरकंडा मंदिर है. यहां माता का सिर गिरा था. पहले इसका नाम सिरकंडा था जो बाद में सुरकंडा नाम से प्रसिद्ध हो गया.
सुरकंडा पहाड़ी टिहरी जिले में 2,750 मीटर की ऊंचाई स्थित है. यहां पर सुरकंडा माता का प्रसिद्ध मंदिर है. यह मंदिर मसूरी-चंबा मोटर मार्ग पर धनौल्टी से करीब आठ किलोमीटर दूर है. नरेंद्रनगर से सुरकंडा मंदिर की दूरी करीब 61 किलोमीटर है. नई टिहरी से करीब 41 किलोमीटर दूर चंबा-मसूरी रोड पर कद्दूखाल नाम की जगह है. यहां से करीब ढाई किलमीटर की पैदल चढ़ाई करके सुरकंडा माता के मंदिर पहुंचते हैं. यहां पर अब ट्रॉली की सुविधा भी मंदिर तक पहुंचने के लिए उपलब्ध है.
सुरकंडा पहाड़ पर माता का सिर का भाग गिरा, इसलिए इसे सुरकंडा मंदिर कहते हैं. चंद्रबदनी में बदन का भाग गिरा इसलिए इसे चंद्रबदनी सिद्धपीठ मंदिर कहते हैं. नैना देवी में नैन गिरे तो नैना देवी सिद्धपीठ मंदिर कहा जाने लगा. इसी तरह जहां-जहां मां सती के शरीर के भाग गिरते गये, उसी नाम से प्रसिद्ध सिद्धपीठ बनते गये. टिहरी गढ़वाल के लोग सुरकंडा माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं.
कहा जाता है कि जब भी किसी बच्चे पर बाहरी छाया, भूत-प्रेत आदि लगा हो तो कुंजापुरी सिद्धपीठ के हवन कुंड की राख का टीका लगाने से कष्ट दूर हो जाता है. अगर किसी की संतान नहीं होती है, तो यहां पर हवन करने से मनोकामना पूरी होने की मान्यता भी है.
इसी तरह जिनकी शादी होने में दिक्कतें आती हैं, तो मंदिर के प्रांगण में उगे रांसुली के पेड़ पर माता की चुन्नी बांधते हैं. कहा जाता है कि इससे हर मनोकामना पूरी हो जाती है. इसलिये इस मंदिर में बच्चे बूढ़े सब परिवार के साथ अपनी मनोकामना पूरी करने और माता के दर्शन लिये आते हैं. इस मंदिर में माता को प्रसन्न करने के लिये श्रृंगार का सामान, चुन्नी, श्रीफल, पंचमेवा मिठाई आदि चढ़ाई जाती है.
सुरकंडा देवी मंदिर में आने के लिये सबसे पहले ऋषिकेश से चम्बा से कददूखाल तक बस या छोटी गाड़ियों से यह पहुंचते हैं. दूसरा रास्ता देहरादून से मसूरी, धनौल्टी होते हुये कद्दूखाल पहुंचते हैं. कद्दूखाल से मंदिर तक ट्रॉली की सेवा है. भक्तजन ट्रॉली के माध्यम से मंदिर तक पहुंच सकते हैं. उसके बाद माता के दर्शन करते हैं. इस मंदिर के प्रांगण से गंगोत्री और यमुनोत्री के साथ गौमुख की बर्फ से ढकी पहाड़ियां दिखाई देती हैं.