कुंभ में नागा साधु-संतों के स्नान को ‘शाही स्नान’

इलाहाबाद:महाकुंभ में अखाड़ों के जिस स्नान को अमृत स्नान कहा जा रहा है, वो शाही स्नान क्या किसी मुस्लिम शासक के प्रभाव में शाही स्नान कहलाता रहा? ज्यादातर लोग इसका जवाब यही देंगे कि मुगलों के असर से ये शाही स्नान बना. लेकिन इतिहासकार और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं इन शब्दों का संबंध मराठा पेशवा से है. उन्होंने ही शाही स्नान और पेशवाई करने की व्यवस्था दी थी.

उससे पहले भी हिंदू या उस समय के सनातनी साधु-संतों ने अपनी ताकत दिखाने के लिए कुंभ के प्रमुख पर्वों पर जुलूस बनाकर उसी तरह तड़क भड़क और सज-धज कर निकाला करते थे. उनके ये जुलूस वैसे ही होते थे, जैसे राजा महाराजा युद्ध के समय अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हुए सेना के साथ निकला करते थे. माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने हिंदू समुदाय को सशक्त करने के लिए अखाड़ों की स्थापना की. साथ ही उनकी शक्ति जनता में दिखाने के मकसद से स्नान पर्वों को चुना. इन पर्वों पर सामान्य गृहस्थों के साथ साधु संत भी तीर्थों नदियों में स्नान किया ही करते थे.

विद्वानों का मानना है कि आदि शंकर ने शंकराचार्य को और शक्तिशाली दिखाने के लिए उनके साथ अखाड़ों को भी जोड़ दिया. अखाड़े अपने-अपने शंकराचार्यों को लेकर हाथी घोड़े और गाजे बाजे के साथ नहाने जाते थे. लंबे समय तक ये व्यवस्था चली रही. शैव और वैष्णव मतों को मानने वालों के अखाड़े भी अलग अलग थे. उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा रहने लगी. खास तौर से प्रमुख त्यौहारों पर महास्नान के लिए पहले जाने को लेकर दोनो मतावलंबियों में संघर्ष होने लगा. हरिद्वार कुंभ में 1761 में दोनों मत के अखाड़ों में पहले स्नान करने को लेकर भयंकर लड़ाई हो गई. दोनों ओर से काफी खून खराबा हुआ.

प्रोफेसर और इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी के मुताबिक इस लड़ाई और खून खराबा को रोकने के लिए चित्रकूट के बाबा रामचंद्र दास ने नासिक कुंभ के दौरान अर्जी लगाई. ये अर्जी पेशवा की अदालत तक पहुंची. 1801 में पेशवा ने इस पर फैसला देते हुए महास्नान को शाही स्नान का नाम दिया और उनके कुभ प्रवेश को पेशवाई कहा.  कि उस दौर के पेशवा ने ये भी तय कर दिया कि अखाड़े इस तरह से क्रम से स्नान के लिए जाएंगे कि जो नासिक में सबसे आगे गया हो, वो अगली जगह लगने वाले कुंभ में पीछे हो जाएगा. जबकि नासिक में पीछे रहने वाला अखाड़ा फिर आगे रहेगा. देशभर में चार स्थानों पर कुंभ लगते हैं. इस तरह से चक्रानुक्रम से सभी अखाड़े आगे पीछे चलेंगे, जिससे संघर्ष न हो.

बाद में अखाड़ा परिषद ने इस तरह के संघर्ष को रोकने का काम किया. उसी की व्यवस्था के अनुसार अब भी अखाड़े आगे और पीछे चलते हैं. बाद में इसमें सुधार कर सभी अखाड़ों के लिए अलग अलग समय और स्नान करने की मियाद भी तय की गई. फिर भी किसी तरह का कोई विवाद हो जाने की स्थिति में परिषद ही फैसला देती है. इसे सभी को मानना पड़ता है. अखाड़ा परिषद अपना शेड्यूल प्रशासन को सौंप देता है. प्रशासन उसी के मुताबिक व्यवस्था करता है.

स्नान के लिए चल रहे दल में सबसे आगे अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर का रथ होता है. उनके पीछे महामंडलेश्वर, श्री महंत, महंत, कोतवाल और थानापति वगैरह अखाड़ों के दूसरे ओहदेदार अपने रैंक और स्थिति के मुताबिक क्रम से चलते हैं. प्रशासन पहले से ही इस जुलूस का मार्ग तय किए रहता है. मार्ग के दोनो ओर बैरिकेड्स के बाहर खड़े होकर श्रद्धालु संतों की चरण धूलि माथे से लगाते हैं.

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