चंदुली पुफु और दीवाली के अमरूद

जे पी मैठाणी
देहरादून। पीपलकोटी सिर्फ कोई गाँव या कस्बा नहीं है। उत्तराखण्ड में ऐसे बहुत कम कस्बे या गाँव हैं जहाँ पर उत्तराखण्ड की दो प्रमुख विरासतें जो गढ़वाली और कुमांऊनी परंपराओं को संजोए रखती है। यहाँ पीपल के पेड़ भावनाओं के केन्द्र हैं।इस कसबे में भाषा , जाति और धरम को आप सार्वजनिक स्थान पर न तो देख सकते हैं और ना ही मह्सूस कर सकते हैं !

पुराने बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर बसा पीपलकोटी जो चमोली. मठ, छिनका, बांवला, सियासैण, हाट से अलकनन्दा को पार कर मंगरी गाड़ के बाद मुल्ला बाजार/शिवालय दुर्गा मंदिर से पीपलकोटी बस स्टेशन पर पहुँचता है। ये ही पुराना पीपलकोटी क़स्बा है और इसके बीच से ही पुराना बद्रीनाथ यात्रा मार्ग था । नौरख राजस्व ग्राम था – अब नगर पंचायत पीपलकोटी बन गया है. लेकिन राजस्व रिकोर्ड नहीं बदले . इस पीपलकोटी में मंगरी गाड़, छिनमंगरा या शिवालय से हम दुर्गा-हनुमान मंदिर के पीपल के पेड़ के पास से पहुँचते हैं.

पुराने बाजार या मुला बाजार का क़स्बा भी कहलाता है जिसके आखिरी छोर पर बद्रीनाथ की तरफ बाईं हाथ पर काली कमली धर्मशाला से पहले श्रीमती चंदा शाह या प्रेम से जाने – जाने वाली चंदुली पुफु का घर था ! उनकी दो बड़ी बेटियाँ नंदी दीदी , उमा दीदी और दो बेटे बड़े पप्पू यानी प्रकाश भाईसाब और छोटे कन्नू भाईसाब यानी कन्हैय्या शाह हैं , कन्नू भाईसाब की ताई जी श्रीमती जीवंती शाह जी को भी हमने कक्षा 7 तक देखा था .

लेकिन अब अगर हम पीपलकोटी के बस अड्डे से मुल्ला बाजार को चलने लगे तो इंद्रलोक होटल के ठीक बगल की सड़क (ये पुराना बद्रीनाथ यात्रा मार्ग था।) से काली कमली धर्मशाला पहुंचते हैं तो उसके बाद भी ठीक बगल में चंदुली पुफु का घर मिलता है । उसके बाद जवाहर लाल शाह जी, फ़िर स्वर्गीय किशन लाल शाह ताऊ जी- अब प्रकाश भाईसाब और सज्जन दा का घर , पानी की डिग्गी , तब का पोस्ट ऑफिस और स्वर्गीय भट्ट जी अब बद्री भाई साहब, लल्लू भाई साहब और मोहित भाई साहब, फ़िर हमारी जूनियर हाई स्कूल अब ये स्थान काली कमली धर्मशाला के अंतर्गत है।

हमारे जूनियर हाई स्कूल के अहाते में श्री भुवन भाई साहब बीच में पानी की गोल टंकी उसके सामने लता बहन जी और प्रमोद भाई साहब का घर बगल में भुवन भाई साहब आगे दुर्गा-हनुमान मंदिर, मंदिर के ऊपर विशाल पीपल का पेड़, फिर श्री सतीश भाई साहब अब समीर और सुधीर का घर था.इस कसबे लास्ट कोने पर श्री ओमगिरी, शिव – शंकर भाई साहब के घर, उनके लुकाठ के पेड़ घर के सामने एक दो गौशालाएं नीचे की तरफ प्राथमिक विद्यालय और पीपलकोटी का शिवालय स्थित है ।

हां एक जरूरी जानकारी ये भी है कि, पुराने यात्रामार्ग का सबसे पुराना डाटपुल शंकर भाईसाब के घर आगे वाले गधेरे यानी वल्ला मंगरी गाड़ पर है, वल्ला मंगरी गाड़ में – कैल्पीर , बामणी मंगरा, पदानु घट और अखौड गोई का पानी बहकर आता है , लेकिन इस डाट और थोडा आगे बद्री भाईसाब और अतुल भाईसाब लोगों की गौशालाओं के साथ साथ छिनमंगरा का जल श्रोत भी है- पल्ला मंगरी गाड़ का पुल सुना डो तीन बार बहा गया पर उस पार शीला दीदी और प्रमोद भाईसाब की गौशाला भी है – अखरोट के पेड़ों के साथ !

दूसरी ओर ओमगिरी भाईसाब के घर के पीछे से ही शिवालय पहुंचा जाता है इस शिवालय के ठीक सामने शानदार कटुवा पत्थर के नंदी विराजमान है और ऊपर छोटी-छोटी दो गुफाएं हैं और उन गुफाओं के पानी के लगातार टपकते रहने से जहाँ भी पानी की बूंदे गिरती वहाँ के पत्थर चिकने, गोल और रत्न जैसे दिखते थे। यहीं आसपास सबसे पहले लैगेस्टोमिया और बेलपत्र के पेड़ों से मुलाकात भी हुई और प्रमोद भाई साहब के घर के पीछे मालू के पत्तों की बेल से पहचान हुई। मालू के पेड़ पर चप्पल के आकार के कॉफी कलर के फल भी लगते, शादी बारात पूजा में मालू के पत्तों का प्रयोग दोने-पत्तल बनाने में किया जाता।

फिर वापसी में ओमगिरी भाई साहब के घर के सामने कई परिवारों की गौशाला मिलती। थोडा वापसी में पेट्रोलपंप का शोर्टकट रास्ता और बगल में राजन भाई साहब का घर और उनके घर के ऊपर कैलाश भाई साहब, वापस नीचे मुकुल भाई साहब का घर, विनोद भाई साहब, सुनील भाई साहब, स्वर्गीय नाथी लाल शाह चाचा जी , हैप्पी भाई साहब ( अतुल शाह ) , संजय भाई, स्वर्गीय मनोहर लाल शाह जी, जगदीश लाल शाह यानि रेशम के पिताजी, मदन लाल शाह, श्री भगवान लाल शाह जी के घर के बाद हम गुन्नु और गिरीश भाई साहब के घर पहुँचते. कभी कभी हमको नीरज यानी नीरू के पिताजी स्वर्गीय उदय लाल शाहः जी अंग्रेजों की कई कहानियां सुनाते फिर लिप्टन चाय की बात , यही पर हमारी बाल सखा बिंदु का घर भी बगल में था, लेकिन गुन्नू भाईसाब के घर के ही ठीक सामने हम फ़िर से चंदुली पुफु के घर पर पहुँच जाते।

उनके घर की तरफ अगर आपका मुंह हो तो पहले हमको लकड़ी के तख़्तों वाली बड़ी लम्बी चौड़ी पंसारी / जड़ी-बूटियों की दुकान दिखती थी ( ये इस क्षेत्र की सबसे पहली और आखिरी जडी बूटी और पंसारी जनरल स्टोर जैसी दूकान का स्वरुप था ) । जहाँ कन्नु भाई साहब (कन्हैया लाल शाह) लोग रहते थे वो चंदुली पुफु के छोटे बेटे थे। और इस घर के बांयी तरफ से पीछे रांगल डीप की ओर एक रास्ता जाता था। जैसे ही हम गली पार करते दाहिनी तरफ चंदुली पुफु के घर का बड़ा सा आंगन था। इस आंगन में छोटी-छोटी गाय-बछिया भी बंधी दिखाई देती थी। और घर के अगल-बगल कुछ अमरूद के पेड़ थे।

हालांकि अब अगर हम आंगन में खड़े होके नौरख गाँव की तरफ देखें तो पीछे की तरफ थोड़ी दूरी पर भग्गु दीदी का आंगन दिखने लगता था। वहाँ भी कुछ-कुछ पेड़ थे और जहाँ तक मुझे याद है अमरूद, आड़ू और संतरे के एक-दो पेड़ और शायद कुछ गुलाब भी। चंदुली और जीवन्ति पुफु का आंगन हमेशा लिपा-पुता रहता और लिपाई-पुताई के निशान अमरूद के पेड़ों पर भी दिखते। उन दिनों रांगल डीप के खेतों में धान की फसल पक रही होती, जिन दिनों दाड़िम के पेड़ पर दाड़िम फटने लगते, ककड़ियां चोरी जाती, कंजूस अमरूद के पेड़ वालों के पेड़ पर पीपलकोटी के आसपास अमरूद बुरी तरह पक कर जमीन में गिरते ही बिखर जाते थे।

फ़िर इन अमरूदों पे किसी का ध्यान नहीं जाता। कई अमरूद तो पेड़ पर ही पक्षी या बंदर खा जाते और या तो आधे खाए हुए लटके रहते। हमारे कुछ दोस्त तो ऐसे थे जो पक्षियों द्वारा आधे खाए गये अमरूदों को सफाई से काटकर दूसरी तरफ से बांट कर खा देते। लेकिन चंदुली पुफु के घर के अमरूद कभी भी सड़-गल कर जमीन पर गिरते ही नहीं क्योंकि वो समय पर ही उन अमरूदों को निकाल कर नीचे रांगल डीप, धान की लवाई मंडाई करते बच्चों में या जूनियर हाई स्कूल के बच्चों को बांट देती थीं।

य फिर नीचे रांगल डीप (डीप- जमीन का बिलकुल किनारा ) की तरफ खेतों काम करती उनकी दोस्त या नौरख गाँव की अपनी साथियों को पुफु बाँट देती थी. हम भी कक्षा छठी से आठवीं तक मुल्ला बाजार जूनियर हाई स्कूल में पढ़े। इस स्कूल के कमरों के फर्श और चंदुली पुफु के आंगन में एक समानता थी। वह यह थी कि दोनों को गोबर और मिट्टी से लिपते थे। स्कूल के सभी क्लासरूम की दीवारें आधे गोबर मिट्टी और आधे कमेड़े ( लोकल चूने ) से लिपी होती थी। लेकिन चंदुली पुफु का आंगन सिर्फ गोबर और मिट्टी से लिपा पुता रहता था एक बेहद शानदार मिटटी की खुशबू के साथ ।

इसी आंगन के कोने में एक ओखली भी थी जिसमें धान और चूड़े कूटे जाते थे। उनके घर पर आने वाले हर बच्चे को चूड़े भी दिये जाते और पीले-हरे अमरूद भी । सच में उस जैसे अमरूद का स्वाद हमने आज तक कहीं नहीं चखा। क्योंकि जिस स्नेह से हाथ पकड़कर अपनेपन के साथ वो पुफु अमरूद पकड़ाती थी या डांटकर खा लेने को कहती थी शायद उसी स्नेह से उनकी मिठास भी कई गुना बढ़ जाती होगी , ये बात सिर्फ चूड़े या अमरुद तक ही नहीं बल्कि कभी जाड़े की चाय और गाय के दूध और छांछ को बाँटते हुए आगे बढ़ती थी !

इधर दशहरा, दिवाली और रामलीला के आयोजनों के वक्त भी पीपलकोटी कसबे जो अब नगर पंचायत बन गया है के, सभी लोग अपने अपने घरों के जो भी फल फूल हों उनको इकट्ठा करते और आपस में बाँट दिया करते थे ! मैं , अपने घर तब डाक बंगला को ही घर समझते थे- वहाँ से दौड़ते हुए- सायी ( यानि गढ़वाली शब्द – गौशाला ) के बगल से – वैध्य सुरेन्द्र सिंह सजवाण की दूकान से रावत पान भंडार को पार करते ही स्टेशन पर पहुँच जाते थे जहां पर श्री रामेश्वर बिश्नोई जी की विशाल दूकान या जनरल स्टोर हुआ करता था ठीक सामने ,

तब का प्रशांत होटल , नौरख पदानों की होटल जहां इस यात्रा मार्ग का शानदार खाना श्री रंजीत सिंह मामा जी आनंदी मामा जी बनाते थे – बगल में स्वर्गीय हरीश भाईसाब और मोहित भाईसाब की दूकान , बगल में बीरू काका की पान की दूकान , अजंता होटल और बगल में विक्रांत होटल – उनसे ही लगा हुआ था पुलिस का चेक पोस्ट – ऊपर की तरफ पर्यावरण मित्र वाल्मीकियों का डेरा बाद में ऊपर की तरफ जोशी की सब्जी की दूकान , प्रमोद भाईसाब की पान की दूकान और नाई के बगल में तब सुरेश मोची की दूकान थी जो बाद में फल बेचने लगे थे.

इसके पीछे की तरफ रावत पान भंडार के ऊपर करन ड्राईक्लीनर्स की दूकान भी हुआ करती थी ! उसके बगल सही बंगले को शोर्टकट रास्ता भी जाता है , हालांकि अभी आधा बाजार पेट्रोल पम्प की तरफ- जैसे – राजन भाईसाब का वस्त्र भण्डार और गिफ्ट हाउस इसके बाईं तरफ से नौरख के खेतों को जाने रास्ता भी था, बगल में अब भुवन भाईसाब का शाह इलेक्ट्रिकल्स और पहले शन्नू भाई के पिताजी की पान की दूकान ,बन्नी भाईसाब की फल सब्जी की दूकान, सुनील भाईसाब की दाल की पकौड़ियाँ, उस समय त्रिलोक अग्रवाल जी की दूकान अब इलेक्ट्रिकल्स की दूकान , पानी की नीली – गोल जलसंस्थान की टंकी पीछे पुलिस के वायरलेस का स्टेशन ठीक सामने स्टेट बैंक और उससे पहले काली कमली धर्मशाला जाने – आने के लिए सीढ़ी नुमा रास्ता यही नहीं उपर की तरफ मेरे मित्र बालसखा – जयदीप पुंडीर के पिताजी की पुंडीर टैलर्स और बगल में श्री हरसिंह कंडेरी जी का फेमस टी स्टाल , बगल में सरकारी अस्पताल , उसके आगे शहतूत का पेड़ भी था ,

बिलकुल सामने आटे की चक्की जिसको अक्सर श्री मणि लाल शाह चाचा जी चलाते थे, तब सड़क पार प्रशन रेस्टोरेंट नहीं बना था लेकिन बगल में कैलाश भाईसाब लोगों की बड़े कपडे की दूकान आर एक तरह का बड़ा जनरल स्टोर था उसके ठीक सामने उस समय गढ़वाल मंडल विकास निगम के बाहर से सफ़ेद कैंनवास और भीतर से पीले अस्तर वाले उन पर फूल छपे हुए थे ये टेंट लगे थे और उन के अगल बगल – रंगबिरंगे खूब कोसमोस के फूल खिले रहते, पेट्रोल पम्प बहुत पुराना था उसके कोने में डॉ, पाठक और उनकी बहन गीता दीदी ने पथिक होटल खोला था ये बात शायद वर्ष 1984 से वर्ष 1987 की होगी !

पहली येज्दी मोटर साइकिल इनके पास ही देखि थी और यहाँ मोटर साइकिल चलाने वाली गाता दीदी पहली महिला या लड़की थी . अब यहाँ पथिक के किनारे बाजार ख़तम हो जाता है नीचे की तरफ नंदी फूफू जी और कान्हा भाईसाब ,सुनील और मुकुल भाईसाब लोगों की गौशाला थी . अब ये जगह होटल और दुकानों में बदल सी गयी है ! सुना है अब विकास के साथ पीपलकोटी के मुख्य मार्ग पर ही वर्ष 2024 में शराब का सरकारी ठेका भी खुल गया है !

पीपलकोटी के आधा बाजार – पल्ला बाजार और डीजीबीआर को जानना बाकी है, तो चलते हैं पुलिस चैक पोस्ट से आगे जिसके पीछे अगथला के श्री चैत सिंह काका का लाज, पीछे की तरफ सतपुली लाल की दूकान और नीचे की तरफ पंचम जमादार और सार्वजनिक शौचालय वापस बीच में GMOU का टिकट स्टेशन ( अब खंडहर हो गया है) , समिति से लगभग लगा हुआ पाखी के यद्बीर भाईसाब का ऐतिहासिक मकान – बगल में पशु सेवा केंद्र , फिर सुरेन्द्र देवेन्द्र जनरल स्टोर , यहीं पर पहले होटल हैवन खुला था , पर इन दोनों के बीच में मेरे बचपन के दोस्त बद्री बिष्ट का घर था –

उसके बगल में श्री बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति की धर्मशाला और उससे लगा रांगलडीप का 6-8 फीट चौड़ा रास्ता और धर्मशाला के ठीक सामने श्री दीन दयाल भाईसाब की उस समय पान की दूकान, कान्हा भाईसाब और उनका लकड़ी के जंगले का मकान नीचे गाँधी आश्रम बगल में शाह ज्वेलर्स, फिर आगे खादी ग्रामोद्योग के साथ साथ सत्यप्रसाद जनरल स्टोर, नीचे की तरफ मेरे मित्र बद्री बिष्ट के पिताजी की मिठाई की दूकान , बीच बीच में उद्यान विभाग का ऑफिस और फिर लोकनिर्माण विभाग के दो बड़े बड़े टिन शेड स्टोर थे उनके बीच में गोल नीले रंग की जल संस्थान की गोल पानी की टंकी और पास में बड़ा सा डैकन ( पहाडी नीम ) का पेड़ था.

इनके ठीक सामने से बंगले की रोड जाती जो हमारे घर के आगे खतम हो जाती थी, लेकिन पैदल रास्ता नौरख गाँव और कैल्पीर तक जाता है, लेकिन नीचे सड़क के किनारे वाली पानी की टंकी के सामने ही नौरख गाँव के पानसिंह मामा जी की सेल पकौड़ी और जलेबी के साथ साथ चाय की दुकान भी थी, इसके अलावा उस डैकन के पेड़ के ही सामने मठ गाँव के मोहन दा के साथ साथ अब गुनियाला के अणसी भाईसाब की दूकान और लास्ट में मुन्ना लाला की दूकान पर जाकर पल्ला बाजार ख़तम हो जाता, हालाँकि बीच में अब मेहरा और नंदादेवी स्टोर भी खुल गए हैं मुन्ना लाला की दूकान से आगे सीमा सड़क संगठन ( डीजीबीआर) का ऑफिस शुरू हो जाता था.

डीजीबीआर से आगे पल्छ्ला मठ – बेमरू का पैदल मार्ग भी जाता है , अब सड़क बन गयी है ! लेकिन ठीक उत्तर- पूर्व में गुदगड गधेरे से आगे पीपलकोटी बाजार ख़तम हो जाता है ! ये जो परिदृश्य है ये लगभग आज से ( 2024 से ) लगभग 40 साल पहले के पीपलकोटी का है अब बहुत कुछ बदल चूका है- बस बाजार घुमाते घुमटे हुए मैं, असली बात जो अमरुद की थी उसको ही भूल गया हाँ तो अरे मैं, तो अपनी चंदुली पुफु की बात कर रहा था या यहाँ मैं, अपनी चंदुली पुफु के घर के अमरुद के फलों की बात करने के लिए ही आज ये बातें या पीपलकोटी की ये कहानी लिख रहा था. तो- चलते हैं पीपलकोटी के बंगले से ( जिसके बगल के टिन शेडों में हम रहते थे )

मैं, हरीश , जगदम्बा नौटियाल और कभी कभी नीरू दीदी के साथ दौड़कर स्टेशन पार कर इन्द्रलोक होटल के बगल से आगे बढ़ते काली कमली धर्मशाला पार करते तो ठीक सामने कभी कभी चन्दुली पुफु दिख जाती – जोर से और पूरे अधिकार से आवाज देती – हे नानतिन ( हे छोटे बच्चो -कुमौनी भाषा में – नानतिन का मतलब छोटे- छोटे बच्चे होता है ) ह्यां आओ हो – और हम चुपचाप चंदुली पुफु के पीछे – वापसी में हमारे हाथों में या खाकी पेंट के खीसों ( जेब ) में होते पुफु के दिए हुए थोड़े थोड़े सुखनंदी धान के चूड़े और अधपके – अधकच्चे सुन्दर और स्वादिष्ट अमरुद – वैसे जैसे मैंने जीवन में दुबारा नहीं खाए और आज भी जब भी देहरादून की फलों की ठेलियों और फलों के दूकान में अमरुद के फल देखता हूँ तो चंदुली पुफु और उनके द्वारा प्यार से दिए जाते अमरुद हर बार याद आते हैं – अब कन्नू दा ने मुझे 8 दिसंबर को उनकी एक फोटो इस कहानी के लिए दी है – जिसमे उनकी हल्की मुस्कान आज भी जीवंत है ! ढेर सारी याद बाकी – बात बाकी !

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