काँवड़  यात्रा और सांप्रदायिक सौहार्द

उदय दिनमान डेस्कः विषय संबंधी इतिहास की गहराई से अपने को विच्छन्न करते हुए उन्हीं प्रसंगों से जुड़ा रहना न्यायोचित समझता हूं जिसमे एक मुकम्मल हिंदुस्तान की तस्वीर चित्रांकित हो उठे। सांप्रदायिक सौहार्द एक ऐसा विमर्शकारी विषय है जिसके आधार पर भारतीय लोकतंत्र की सांस्कृतिक चेतना का समृद्धशाली इतिहास गौरवांवित होता है।

हिंदू मुस्लिम एकता की परिधि हमेशा से धर्म और राजनीति से संपोषित रही है। सर सैयद अहमद खान एक उदार व्यक्ति थे और शुरू मे हिंदू मुस्लिम एकता की वकालत करते थे उन्होंने एक बार कहा था “हिंदू और मुसलमान भारत की खूबसूरत दुल्हन की दो आंखें हैं” अब सवाल है कि जिन आंखों द्वारा देश के लिए ऐसी हसरतें देखी गई हों क्या कालांतर मे यही आंखें व्यक्तिगत रूप से संकीर्ण हो सकती हैं?

विभिन्न समाजों, जातियों, संस्कृतियों, धर्मो के बीच सामंजस्य और एकता के संदेश को साझा करने वाले भाव “वसुधैव कुटुंबकम्” सनातन धर्म का मूल संस्कार क्या कालांतर मे सिर्फ नारे  बनकर रह जायेंगे और निहित दर्शन का वाष्पीकरण हो जायेगा? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसने भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक वा धार्मिक एकता को चुनौती और खतरे मे डाल दिया है।

यह सवाल गंभीर इसलिए हो जाता है, जब सावन के माह मे शुरू होने वाली काँवड़  यात्रा और उससे जुड़े सरकारी फरमान जिसमे खान-पान वितरक दुकानदारों को अपने नाम की प्लेटें दुकान पर चस्पा करना अनिवार्य है ताकि हिंदू भक्त अपनी आस्था को दगा न कर बैठें। यह मुद्दा कई मामलों से जुड़ा है। तो फिर घुटनों के बल चलते हुए बनमानुष को मानुष बनाने के लिए जिस धर्म की आवश्यकता पड़ी और उस धर्म का प्रेमपाठ कबीर, जायसी, सूर, नानक, रसखान वा अन्य सदाचारी संतजन कर रहे थे, वह निरा ढकोसला था? एकता के जितने धार्मिक, सामाजिक शिविर मौर्यकाल, गुप्तकाल और मुगलों के समय चल रहे थे क्या वह प्रदर्शनी मात्र था?

मुगलों राजपूतों मे जो खून के संबंध निर्मित हो रहे थे क्या वह महज सत्ता की राजनीति थी या पारिवारिक सामाजिक रिश्तों का अटूट इतिहास? सूफी संतों द्वारा जिस धर्म का संगीत हिंदू मुस्लिम एकता के लिए गाया जा रहा था वह सिर्फ मनोरंजन था या एकता का अवलंबन?    इतिहास के जितने भी सामाजिक, धार्मिक आंदोलन महापुरुषों मनीषियों द्वारा चलाए गए उसके केंद्र मे क्या था? गीता कुरान न होकर भव्य भारत वा हिंदुस्तान था। मानव धर्म के ऐसे सिद्धांत वा क्रिया कलाप हमारे इतिहास संस्कृति और धर्मग्रंथों मे स्वर्णिम हैं जिनका अध्ययन कर लिया जाय तो दो आंखें मिलकर एक हो जाए ।

बुंदेलखंड के महोबा जिले मे दो मुस्लिम युवक जहीर और सुलेमान हिंदू लोगों के बीच जाकर सुंदर कांड का पाठ करते रहे हैं। सुलेमान के चाचा रामलीला मे बाणासुर का अभिनय करते रहे और अपने पुत्र से कहते हैं-मेरे मरने के बाद मेरी चाली सवां और तेरहवीं दोनो करना। यह कौमी एक जेहती की दीवार को कभी ध्वस्त नहीं होने देने का संकल्प केवल एकमात्र उदाहरण नहीं है ऐसे बहुत से हैं। इन उदाहरणों के बाद अगर हमारी धमनियों का खौलता खून कूल मे न तब्दील हो तो उस व्यक्ति से बड़ा संकीर्ण संकुचित वा कट्टर कोई दूसरा नहीं।

दुर्भाग्य है इस देश का जहां धर्म और राजनीति के पवित्र मंदिर मे भगवान की जगह हिंदू मुसलमान और संविधान की जगह खालिस्तान और पाकिस्तान के पैरोकारों ने मन वचन और कर्म से एक होकर भारतीय एकता अखंडता और अतीत के गौरव को छिन्नभिन्न करने पर आमादा हैं। धर्म मे राजनीति और राजनीति मे धर्म के नियामकों ने अपने स्वार्थवश भारतीय संस्कृति की उम्मीदों एवम सपनों को चकनाचूर कर रहे हैं।

ऐसे वक्त मे हमे स्वतंत्रता संग्राम के अपने प्रबुद्ध नेताओं की विरासत पर गौर करने की जरूरत है ताकि हिंदू मुस्लिम एकता और दोस्ती की राह तलाशी जा सके। भारतीय इतिहास के दो धुरंधर तिलक और जिन्ना बेहद करीबी दोस्त वा सहयोगी रहे। लखनऊ समझौता १९१६ दोनो महान शिल्पियों की देन रहा है। बेहद खराब दौर मे जब भारतीयों की कोमल आत्मा को कुचला जा रहा था उस समय की हिंदू मुस्लिम एकता की मिशालों को पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। राजनीति का आम और खास आदमी विश्वास के पथ पर कंधे से कंधा मिलाकर भारतीय आत्मा को शरीर का आकार दे रहा था।

आजादी के समय गाए जाने वाले प्रेरक गीतों में “ये देश है वीर जवानों का” “मेरी धरती सोना उगले” “अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों” “मेरा मुल्क मेरा देश” “मां तुझे सलाम” ये सारे गीत/संगीत मुसलमानों द्वारा प्रणीत वा जनित हैं। ये महज कुछ उदाहरण भर हैं। १९३१ मे प्रेमचंद ने हिंदू मुस्लिम एकता पर लेख लिखा और बताया “हम गलत इतिहास पढ़ पढ़ कर एक दूसरे के प्रति गलत फहमी दिल मे भरे हुए हैं” उन्होंने इस्लाम को तलवार के बल पर फैलने के बजाय हिंदुओं द्वारा निम्न जातियों पर किए गए अत्याचार को माना है।

खैर यह वृहद इतिहास का हिस्सा है। इस लेख में धर्म के उदय पर बल न देकर वर्तमान राजनीति और सांप्रदायिक सौहार्द की बात मुख्य है। कुछ सवाल अब धर्म के ठेकेदारों वा सत्ता लोलुपों से क्या हिंदू क्रिकेट टीम के बल पर विश्वविजेता बना जा सकता है। क्या हिंदू डाक्टर से ही सम्पूर्ण भारतवासी का इलाज संभव है। हम कैसा भारत बनाने पर तुले हैं हमारे भगवान वहां भी हैं जहां हिंदू नहीं हैं वहां जाने वाले भूखे प्यासे हिंदुओं मे जान फूकने का काम गैर हिंदू ही करता है। जब प्राइवेट लिमिटेड लोकतंत्र बनाने पर बल देंगे तो उस लोकतंत्र मे उन्माद अहंकार और अविश्वास बढ़ना स्वाभाविक है।

सत्ता व्यवस्था को राजनीति के धर्मो का पालन करते हुए भारतीय आत्मा के प्रति समर्पित होना चाहिए और धर्म की राजनीति मे ईश्वर के नाम पर होने वाली साठगांठ को खत्म कर ईश्वर के पराभव के प्रतिनत रहना चाहिए। स्वार्थ और वोट बैंक की बेदी पर समाज धर्म जाति आदि का गला घोटने से डरना चाहिए वरना बाहर लगी आग उतनी खतरनाक नहीं होती जितनी की अंदर लगी आग। अंग्रजों के विरोधी बनकर हम लड़ सकते हैं परंतु अपने अंगों के विरोधी होकर नहीं।

भारतीय इतिहास के उन सारे प्रसंगों को पुनर्जीवित वा प्रकाशित करने की जरूरत है जिस से हिंदू मुस्लिम दलित पिछड़ा की एकता को बल मिले। इतिहास, संस्कृति, समाज, साहित्य, संगीत, दर्शन के उज्ज्वल संदर्भ को लोक के समक्ष लाने होंगे जिससे घोर और सघन अंधेरा हटवा छट सके तभी जय हिंद जय भारत मे और जय भारत जय हिंद मे साकार हो उठे और बेहतर मानवताकारी लोकतंत्र हिंदुस्तान की पहचान बने।

  • डॉ. (प्रो.) बंदनी कुमारी,   सहायक प्रोफेसर, डिग्री कॉलेज, यूपी

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